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स्थानीय सरकार के लिए भाजपा की राह भी उतनी आसान नहीं, भाजपा को जल्द संगठन का ढांचा खड़ा करना होगा

  • वार्ड सीमांकन के अपने प्रस्तावों को फाइनल कराना होगा
  •  मंडल अध्यक्षों को बड़ी भूमिका पूर्वाग्रह छोड़ निभानी होगी
  • नेताओं को समर्थक नहीं, जिताऊ की सिफारिश करनी होगी
  • गुटबाजी को तिलांजलि ही देनी होगी

अभिषेक आचार्य

RNE Special.

स्थानीय सरकार के लिए चुनाव की तैयारियां आरम्भ हो चुकी है। भले ही अभी तक तारीख तय नहीं मगर लगता है इस साल के अंत या अगले साल के आरम्भ में ये चुनाव होंगे। भाजपा के बारे में ये कहावत मशहूर है कि वो हर चुनाव को गम्भीरता से लेती है और जीतने के लिए लड़ती है। भले ही वे नगर निगम के चुनाव ही क्यों न हो।

निगम के वार्डों का सीमांकन कराया गया है और प्रशासन से ये काम शुरू कराने से पहले भाजपा ने एक कमेटी बना उसे सीमांकन देखने का जिम्मा दे दिया। कांग्रेस ऐसा नहीं कर सकी। उस कमेटी ने प्रस्ताव तैयार कराए और आपत्तियां भी दी। अब सरकार के स्तर पर निर्णय होना है। वहां तक भी संगठन अपने प्रस्ताव पहुंचा चुका है।

आंकड़े भाजपा के पक्ष में:

वैसे यदि आंकड़ों की बात करें तो स्थानीय सरकार की दृष्टि से वे भाजपा के पक्ष में है। जिले की 7 में से 6 सीट पर भाजपा के विधायक है। लोकसभा की सीट भी भाजपा के पास ही है। लोकसभा व विधानसभा चुनावों में शहरी क्षेत्र से भाजपा को बड़ी सफलता मिली हुई है, जो बात भी पक्ष की है।

संगठन का ढांचा जल्द बनना जरूरी:

भाजपा यदि स्थानीय निकाय में बड़ी सफलता चाहती है तो उसे संगठन के ढांचे को जल्द खड़ा करना होगा। अभी सुमन छाजेड़ जी अध्यक्ष तो बन गयी मगर बाकी पदाधिकारी नहीं बन पाए है। वो जितनी जल्दी बनेंगे काम उतना ही जल्दी शुरू होगा।

मंडल अध्यक्षों की रहेगी भूमिका:

निकाय चुनाव में भाजपा के मंडल अध्यक्षों की बड़ी भूमिका रहेगी। क्योंकि असल ग्राउंड रिपोर्ट तो वे देंगे। पार्टी को मंडल के अधीन आने वाले वार्डों के लिए उनसे सर्वे करा संभावित 3 या 5 उम्मीदवारों के नाम लेने चाहिए। उन नामों पर फिर जिला संगठन व जन प्रतिनिधि विचार कर एक नाम तय करे। मंडल अध्यक्षों को पूर्वाग्रह मुक्त होकर नाम देने होंगे। उम्मीदवार तय करने में समर्थक नहीं जिताऊ पर ध्यान देना होगा। तभी सार्थक परिणाम मिलेंगे।

गुटबाजी को तिलांजलि देनी होगी:

भाजपा के भी जिला स्तर पर कई क्षत्रप है। वे एक तरह से अपने खास लोगों व समर्थकों के हितों की रक्षा करते है। इस भाव के कारण ही धीरे धीरे ये गुट में तब्दील हो जाते है। इन गुटों को पार्टी हित में गुटबाजी को तिलांजलि देनी पड़ेगी।

पिछले अनुभव को याद रखना होगा:

पिछले 5 साल निगम में महापौर भाजपा का था। जबकि चुनाव में उनको सीधे पूरा बहुमत नहीं मिला था। समर्थन जुटाकर ही महापौर बनाया था। उस कार्यकाल की भी स्वाभाविक एन्टीनकम्बेंसी है, जिसको वार्डो में उम्मीदवार बदल के ही कम किया जा सकता है।